Information about vitamins

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       I want to share with you information about vitamins who is very
Useful our good health.


परिचय-
शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए विटामिनों के महत्वपूर्ण योगदान से इन्कार नहीं किया जा सकता है। शरीर के समुचित पोषण के लिए विटामिन अति आवश्यक सहायक तत्व हैं। आधुनिक काल में विटामिनों की खोज के बाद इनका प्रचलन तेजी से जोर पकड़ चुका है। सभी विटामिन जो अब तक चिकित्सा विज्ञानियों ने खोज निकाले हैं वे सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। ये हमारे भोजन में काफी कम मात्रा में होकर भी हमारे शरीर को नई जीवन शक्ति देते हैं। इनकी कमी से शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। जब विटामिनों की किसी कारणवश शरीर में पूर्ति हो पाना सम्भव नहीं होता तब यह कमी मृत्यु का कारण बन जाती है।

विटामिन ऐसे आवश्यक कार्बनिक पदार्थ हैं, जिनकी अल्प मात्राएं सामान्य चयापचय और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। ये विटामिन शरीर में स्वत: पैदा नहीं हो सकते, इसलिए इन्हें भोजन से प्राप्त किया जाता है। इनका कृत्रिम रूप से भी उत्पादन किया जाता है।

समुचित मात्रा में विटामिन प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को ताजा भोजन ही करना चाहिए। भोजन पकाने में असावधानी बरतने, सब्जियों को काफी देर तक उबालने, इन्हें तेज रोशनी में रखने आदि से इन वस्तुओं में मौजूद विटामिन नष्ट हो जाते हैं। विटामिनों को दो वर्गो में विभजित किया गया है- वसा विलेय (soluble) और जल विलेय

वसा विलेय विटामिन-

विटामिन `ए´ (रेटिनोल), डी, ई (टेकोफेरोल) और विटामिन बी-1 (थायामिन), बी-2 (राइबोफ्लेविन), नियासीन (निकोटिनिक अम्ल), पेण्टोथेनिक अम्ल, बायोटिन, विटामिन बी-12 (साइनोकैबैलेमाइन), फोलिक अम्ल और विटामिन सी (ऐस्कॉर्बिक अम्ल) जल में विलेय विटामिन है।



विटामिन `ई´ की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग-
वीर्य निर्बल
नपुंसकता
बांझपन
आंतों में घाव
गंजापन
गठिया
पीलिया
शूगर (मधुमेह)
जिगर के दोष
हृदय रोग
विटामिन `ई` युक्त खाद्यों की तालिका-

गेहूं
हरे साग
चना
जौ
खजूर
चावल का मांड
ताजा दूध
मक्खन
मलाई
शकरकन्द





विटामिन `ई´ की महत्वपूर्ण बातें-

विटामिन `ई´ वसा में घुलनशील होता है।
अंकुरित अनाज तथा शाक-भाजियों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
अंतरिक्ष यात्रियों में ऑक्सीजन की अधिकता से रक्तहीनता का दोष पैदा हो जाता है जो विटामिन `ई´ से ठीक हो जाता है।
विटामिन `ई´ में किसी भी प्रकार की वेदना को दूर करने का विशेष गुण रहता है।
शरीर में विटामिन `ई´ की कमी हो जाने से किसी भी रोग का संक्रमण जल्दी लग जाता है।
विटामिन `ई´ की कमी होते ही क्रमश: विटामिन `ए´ भी शरीर से नष्ट होने लगता है।
गेहूं के तेल में विटामिन `ई´ भरपूर रहता है।
सलाद, अण्डे तथा मांस आदि में विटामिन `ई´ बहुत ही कम मात्रा में पाया जाता है।
स्त्रियों का बांझपन शरीर में विटामिन `ई´ की कमी के कारण होता है।
विटामिन `ई´ को टेकोफेरोल भी कहा जाता है।
विटामिन `ई´ का महिलाओं के बांझपन, बार-बार गर्भ गिर जाने, बच्चा मरा हुआ पैदा होने जैसे रोगों को रोकने के लिए सफलतापूर्वक पूरे संसार में प्रयोग किया जा रहा है।
आग से जल जाने वाले रोगी के लिए विटामिन `ई´ ईश्वरीय वरदान कहा जाता है इसके प्रयोग से जले हुए रोगी को संक्रमण भी नहीं लगता है।
प्रजनन अंगों पर विटामिन `ई´ विशेष रूप से प्रभाव पैदा करता है।
विटामिन `ई´ पर ताप का कोई प्रभाव पैदा नहीं होता है।
पुरुषों की नपुंसकता का एक कारण शरीर में विटामिन ई की कमी हो जाना भी होता है।
बिनौले में पर्याप्त विटामिन `ई´ मौजूद रहता है।
शिराओं के भंयकर घाव, गैंग्रीन आदि विटामिन `ई´ के प्रयोग से समाप्त हो जाते हैं।
शरीर में विटामिन `ई´ पर्याप्त रहने पर विटामिन `ए´ की शरीर को कम आवश्यकता पड़ती है।
हार्मोंस संतुलन के लिए विटामिन `ई´ का महत्वपूर्ण योगदान है।
विटामिन `ई´ की कमी से थायराइड ग्लैण्ड तथा पिट्यूटरी ग्लैण्ड की क्रियाओं में बाधा उत्पन्न हो जाती है।
विटामिन `ई´ की कमी से स्त्री के स्तन सिकुड़ जाते हैं और छाती सपाट हो जाती है।
मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगियों को विटामिन `ई´ प्रयोग कराने से लाभ होता है।
स्त्रियों में कामश्वासना लोप हो जाने पर विटामिन `ई´ का प्रयोग कराने से लाभ होता है।



विटामिन `ए´ की कमी से होने वाले रोग-
फेफड़े व सांस की नली के रोग।
सर्दी-जुकाम।
नाक-कान के रोग।
हड्डी व दांतों का कमजोर हो जाना।
त्वचा का खुरदरा होना, पपड़ी उतरना।
चर्म रोग, फोड़े-फुंसी, कील-मुंहासे, दाद, खाज।
जांघ व कमर के ऊपरी भाग पर बालों के स्थान मोटे हो जाना।
आंखों का तेज प्रकाश सहन न कर पाना, शाम व रात को कम दिखाई देना या अंधा हो जाना।
गुर्दे या मूत्राशय में पथरी बन जाना।
शरीर का वजन घट जाना।
नाखून आसानी से टूट जाना।
कब्ज होना।
स्त्री-पुरुष की जननेद्रियां कमजोर पड़ जाना।
तपेदिक (टी.बी.)।
संग्रहणी, जलोदर।
विटामिन-ए से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें-

विटामिन-`ए´ का आविष्कार 1931 में हुआ था।
विटामिन-`ए´ जल में घुलनशील है।
विटामिन-`ए´ तेल और वसा में घुल जाता है।
विटामिन-`ए´ ‘शरीर को रोग प्रतिरोधक क्षमता देता है।
नन्हें बच्चों को विटामिन `ए´ की अत्यधिक आवश्यकता होती है।
गर्भावस्था में स्त्री को विटामिन `ए´ की अत्यधिक आवश्यकता होती है।
शरीर में संक्रामक रोगों के हो जाने पर विटामिन `ए´ की अत्यधिक आवश्यकता होती है।
विटामिन `ए´ की कमी से बहरापन होता है।
सर्दी, खांसी, जुकाम, नजला जैसे रोग विटामिन `ए´ की कमी से होते हैं।
फेफड़ों के संक्रमण विटामन `ए´ की कमी से होते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से रोगी तेज प्रकाश सहन नहीं कर पाता है।
विटामिन `ए´ की कमी से कील-मुंहासे आदि कई चर्मरोग हो जाते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से आंखों में आंसू सूख जाते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से नाखून आसानी से टूटने लगते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से आंखों का रतौंधी रोग हो जाता है।
विटामिन `ए´ की कमी से अनेक आंखों के रोग आ घेरते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से दांत कमजोर हो जाते हैं और दांतों का एनामेल बनने में रुकावट हो जाती है।
दांतों में गड्ढे विटामिन `ए´ की कमी से होते हैं।
विटामिन `ए´ की कमी से पुरुष के जननांगों पर प्रभाव पड़ता है।
साइनस, नथुने, नाक, कान और गले, शिराओं, पतली रक्त वाहिनियों, माथे की रक्त वाहिनियों के संक्रमण विटामिन `ए´ की पूर्ति करने से दूर हो जाते हैं।
स्कारलेट फीवर विटामिन `ए´ देने से ठीक हो जाता है।
विटामिन `ए´ को संक्रमण विरोधी विटामिन की संज्ञा दी जाती है।
विटामिन `ए´ की कमी से बच्चों की बढ़त थम जाती है।
बच्चों को एक हजार से लेकर तीन हजार यूनिट आई, प्रतिदिन विटामिन `ए´ की आवश्यकता होती है।
विटामिन `ए´ की कमी दिमाग की 8वीं नाड़ी पर बुरा प्रभाव डालती है।
विटामिन `ए´ के प्रयोग से गुर्दों की पथरी का डर नहीं रहता। पथरी रेत के कण जैसी बनकर मूत्र से निकल जाती है।
गिल्हड़ (घेंघा) रोग विटामिन `ए´ की कमी से होता है।
दिल धड़कने वाले रोगी को विटामिन-ए´ के साथ विटामिन-बी1 भी देना चाहिए।
विटामिन-`ए´ की कमी से स्त्री के जननांगों पर घातक प्रभाव पड़ता है।
विटामिन-`ए´ की कमी से स्त्री का डिम्बाशय सिकुड़ जाता है।
विटामिन-`ए´ की कमी से पुरुष के अण्डकोष सिकुड़ जाते हैं।
विटामिन-`ए´ और `ई´ शरीर में घट जाने पर स्त्री और पुरुषों की संभोग करने की इच्छा नहीं रहती तथा सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है।
विटामिन-`ए´ और `ई´ की कमी से पिट्यूटरी ग्लैण्ड की सक्रियता में बाधा हो जाती है।
विटामिन-`ए´ से धमनियां और शिराएं मुलायम रहती हैं।
विटामिन-`ए´ की कमी से बाल झड़ने लगते हैं।
मछली के तेल में विटामिन-`ए´ सबसे अधिक होता है।
विटामिन-`ए´ की कमी से सिर के बाल खुरदरे हो जाते हैं।
विटामिन-`ए´ की कमी से भूख घट जाती है।
विटामिन-`ए´ की कमी से मौसमी एलर्जी होती है।
विटामिन-`ए´ की कमी से वजन गिर जाता है।
विटामिन `ए´ युक्त खाद्य


1.हरा धनिया 10000 अ.ई.

2.पालक 5500 अ.ई.

3.पत्तागोभी 2000 अ.ई.

4.ताजा पोदीना 2500 अ.ई.

5.हरी मेथी 4000 अ.ई.

6.मूली के पत्ते 6500 अ.ई.

7.पका पपीत 2000 अ.ई.

8.टमाट 300 अ.ई.

9.गाजर 3000 अ.ई.

10.पका आम 45000 अ.ई.

11.काशीफल (सीताफल)1000 अ.ई.

12.हालीबुट लीवर ऑयल (मात्रा एक चम्मच)60000 अ.ई.

13.शार्क लीवर ऑयल (मात्रा एक चम्मच)6000 अ.ई.


14.बकरी की कलेजी 22000 अ.ई.

15.दूध 200 अ.ई.

16.अण्डा 2000 अ.ई.

17.मक्खन 2500 अ.ई.

18.घी 2000 अ.ई.

19.भेड़ की कलेजी 22000 अ.ई.

निम्नलिखित खाद्य-पदार्थों में विटामिन-`ए´ अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है। जिस रोगी को विटामिन-`ए´ की कमी हो जाए उसे नीचे लिखी तालिका से चुनकर खाद्य-पदार्थ प्रयोग कराना अतिशय गुणकारी होता है-

दूध
मक्खन
मलाई
केला
नारंगी
गाजर
ककड़ी
हरी साग भाजी
शकरकन्द
चुकन्दर
टमाटर
पालक
सहजन
पत्तागोभी
सरसों का साग
ताजे फल
नींबू
मछली
बकरे की अण्डा ग्रंथि
बाजरा
हाथ का कूटा हुआ चावल
मौसमी
नाशपाती
शाकाहारी भोजन
बेल
शार्क लीवर ऑयल
अण्डा
अण्डे की जर्दी
मछली का जिगर
हालीबुट लीवर ऑयल
बकरे की कलेजी
हरा धनिया
हरा पोदीना
हरी मेथी
मूली के पत्ते
पका आम
काशीफल


परिचय-
विटामिन एच को बायोटिन भी कहा जाता है। यह भी विटामिन बी-काम्लेक्स परिवार का ही एक सदस्य है। इसकी कमी से शरीर में रक्ताल्पता (खून की कमी), और रक्त में लाल कणों का अभाव पैदा हो जाता है। त्वचा पर इसका प्रभाव दिखाई देने लगता है। इसके न रहने पर त्वचा पीली या सफेद सी नजर आने लगती है। इसके न रहने पर सीरम कोलेस्ट्रोल की वृद्धि हो जाती है। विटामिन एच के प्रयोग से जल्दी ही इसकी कमी से होने वाले समस्त विकारों से छुटकारा मिल जाता है। शरीर में रक्ताल्पता (खून की कमी) तो मात्र 6-8 दिन के प्रयोग से ही समाप्त होती देखी गई है। रक्ताल्पता (खून की कमी) दूर होते ही त्वचा पर उभरी सफेदी अथवा पीलापन खुद ही दूर हो जाता है और रोगी अपने अन्दर नई ताजगी स्फूर्ति अनुभव करने लगता है। सीरम कोलेस्ट्रॉल की वृद्धि भी इसके कुछ दिनों के प्रयोग से संतुलित हो जाती है। अत: विटामिन बी-काम्पलेक्स का यह सदस्य अन्य विटामिनों की भांति महत्व ही नहीं रखता बल्कि जीवन शक्ति भी देता है।

एडेनिलिक एसिड-

एडेनिलिक एसिड भी विटामिन बी-काम्पलेक्स परिवार का विशेष सदस्य है। यह यीस्ट में पाया जाता है। पेलाग्रा रोग तथा श्लेष्मकला के जख्म आदि में इसका प्रयोग करने से अतिशय गुणकारी प्रभाव पैदा होता है। इसके प्रभाव से विष लक्षण होना भी संभावित है अत: इसका प्रयोग पूर्ण सावधानी और सतर्कता से करना चाहिए।

कोलीन-coline

कोलीन भी विटामिन बी-काम्पलेक्स परिवार का सदस्य है। यकृत रोगों पर इसका प्रभाव होता है विशेष करके जब यकृत में चर्बी जमा हो जाती है। शरीर में इसकी उपस्थिति से यकृत सम्बंधी रोगों पर रोक लग जाती है अर्थात् यकृत विकार नहीं हो पाते हैं।

फोलिक एसिड-

फोलिक एसिड विटामिन बी-काम्पलेक्स का ही एक शक्तिशाली सदस्य है जो मैक्रोसाइटिक एनीमिया में सफलतापूर्वक प्रयोग की जा रही है। यह पशुओं के यकृत, सोयाबीन, हरी साग, सब्जियां, सूखे मटर, दालें, पालक, चौलाई आदि में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। फोलिक एसिड को आयरन के साथ देने से अधिक शक्तिशाली प्रभाव पैदा होता है। यह कृत्रिम विधियों से बनाया जाता है। प्रारंभ में इसको पालक की हरी पत्तियों में पाया गया था। पालक इसका प्रमुख स्रोत है। इसकी टिकिया तथा इंजेक्शन दोनों उपलब्ध हैं। संग्रहणी, स्प्रू, पुराने दस्तों के बाद होने वाली खतरनाक रक्ताल्पता (खून की कमी) के लिए फोलिक एसिड का प्रयोग रामबाण सिद्ध होता है। गर्भावस्था में होने वाली खून की कमी के लिए इसका प्रयोग करना लाभकारी रहता है। वैसे गर्भावस्था में फोलिक एसिड प्रारंभ से ही देना शुरू कर देना चाहिए। इसको अकेले, आयरन के साथ अथवा लीवर एक्सट्रैक्ट के साथ देना चाहिए। इन दोनों के साथ यह और भी अधिक शक्ति संपन्न हो जाता है। फोलिक एसिड नारंगी रंग का दानेदार फीका पाउडर होता है। स्वस्थ शरीर में इसकी सामान्य मात्रा 5 से 20 मिलीग्राम तथा रोगावस्था में 100 से 150 मिलीग्राम तक होती है।



विटामिन `एफ´ सामान्यत: तेल युक्त बीजों में पाया जाता है।
विटामिन `एफ´ घी, तेल और चर्बी में नहीं पाया जाता है।
विटामिन `एफ´ की कमी हो जाने से प्रोस्टेट-ग्लैण्ड की शोथ (सूजन) हो जाती है।
यदि शरीर में विटामिन `एफ´ की कमी हो जाए तो शरीर में स्थित अन्य विटामिन विशेष करके विटामिन `ए´, `डी´, `ई´ और `के´ शरीर का अंश नहीं बन पाते हैं।
भारत में अभी तक विटामिन `एफ´ का प्रचलन नहीं है जबकि इसकी खोज हुए वर्षों हो चुके हैं। विदेशों में यह प्रयोग हो रहा है, विशेषकर अमरीका में अत्यधिक प्रचलन में है।
विटामिन `एफ´ हाई ब्लडप्रेशर का रोग कम करता है।
विटामिन `एफ´ बुढ़ापे के रोगों के लिए रामबाण साबित होता है।
विटामिन `एफ´ के प्रयोग से आयु बढ़ती है।
यह सूरजमुखी के फूलों के बीजों में अधिक मात्रा में पाया जाता है।
क्षय रोग के लिए कद्दू और उसके बीज अति लाभदायक होते हैं, क्योंकि उनमें विटामिन `एफ´ काफी मात्रा में पाया जाता है।
विटामिन `एफ´ की शरीर में कमी हो जाने पर बाल खुश्क, खुरदरे तथा निर्जीव से हो जाते हैं।
विटामिन `एफ´ की कमी से पित्ताशय में रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
विटामिन `एफ´ की कमी से मूत्र रुक जाता है क्योंकि प्रोस्टेट ग्लैण्ड की सूजन उत्पन्न हो जाती है।
अगर त्वचा की पपड़ियां उतर रही हों तो तुरन्त समझना चाहिए कि शरीर में विटामिन `एफ´ की कमी हो चुकी है।
विटामिन `एफ´ के प्रयोग से बुढ़ापे में प्रोस्टेट-ग्लैण्ड का रोग हो जाता है और रोगी की संभोग शक्ति बढ़ जाती है।
बुढ़ापे में विटामिन `एफ´ के प्रयोग से रक्तवाहिनियों की कठोरता समाप्त हो जाती है और रक्तवाहिनियां नरम-मुलायम हो जाती हैं।
विटामिन `एफ´ रक्त में कोलोस्ट्रॉल की मात्रा को कम करता है।
कद्दू के बीजों की गिरी में विटामिन `एफ´ काफी मात्रा में विद्यमान होता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सक हजारों वर्षा से कद्दू के बीजों का चिकित्सा में प्रयोग करते आ रहे है, जाहिर है वे कद्दू के बीजों की मींगी में स्थित क्षय रोग (टी.बी.) को दूर करने वाली शक्ति से परिचित रहे होंगे-जबकि चिकित्सा विज्ञान ने आज खोज निकाला है कि कद्दू की मींगी में क्षय रोग को समाप्त करने के लिए विटामिन `एफ´ होता है।
विटामिन `एफ´ के प्रयोग से हृदय शक्तिशाली हो जाता है और हृदय के कई विकार शान्त हो जाते हैं।
एक्जिमा रोग का कारण शरीर में विटामिन `एफ´ की कमी हो जाना भी होता है।
राक्षसी भूख का एक कारण शरीर में विटामिन `एफ´ की कमी भी होती है।
गुर्दों के रोग विटामिन `एफ´ की कमी के कारण होते हैं।
विटामिन `एफ´ के प्रयोग से सिर के बाल सुन्दर और चमकीले हो जाते हैं।
विटामिन `एफ´ के प्रयोग से शरीर में चुस्ती-फुर्ती और रक्त का संचार होता है।
कद्दू के बीजों की गिरी प्रयोग करने से पागलों का पागलपन भी ठीक हो जाता है। कद्दू के बीज में विटामिन `एफ´ होता है।
कद्दू की मींगी अनिद्रा रोग को ठीक कर देती है।
कद्दू की मींगी का प्रयोग करने से फेफड़ों से रक्त आना बन्द हो जाता है।
कद्दू की मींगी दिमाग की खुश्की और गर्मी के ज्वर का नाश करती है।




परिचय-
विटामिन `के´ शरीर के लिए बहुत जरूरी विटामिन होता है। शरीर में कहीं से भी होने वाले रक्तस्राव को रोकने की इसमें अदभुत क्षमता होती है। इसकी कमी से शरीर में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं।

विटामिन `के´ की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग-
खून का पतला होना।
खून में प्रोथेम्बिक तत्व की कमी होना।
रक्तस्राव होना।
विटामिन `के´ युक्त खाद्य पदार्थ-

पालक
मूली
गाजर
बन्दगोभी
फूलगोभी
गेहूं
जौ
सोयाबीन का तेल
दूध
अण्डे की जर्दी
हरे पत्ते का शाक
अंकुरित अनाज
अल्फल्का
नींबू
चावल के छिलके
पशुओं के जिगर
घी
ताजे हरे जौ
संतरा
रसदार फल
नोट- जिन पौधों में क्लोरोफिल होता है, उसमें विटामिन `के´ अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है।

विटामिन `के´ से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य-

विटामिन `के´ पानी में घुल जाता है।
विटामिन `के´ नीबू-संतरा, रसदार फल, हरी सब्जियां, पालक, टमाटर में अधिक पाया जाता है।
विटामिन `के´ रक्त के संतुलन तथा प्रवाह को अपने प्रभाव में रखता है।
घातक शस्त्रों की चोट से निकलने वाले रक्त को रोकने के लिए इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है।
रक्तस्राव वाले रोगों में शीघ्र लाभ के लिए हमेशा विटामिन `के´ युक्त इंजेक्शन का ही प्रयोग करना चाहिए टैबलेट का नहीं।
विटामिन `के´ नियमित दो मिलीग्राम दिन में 3 बार खिलाने से प्रोथोम्बिन नॉर्मल हो जाता है।
विटामिन `के´ की कमी से शरीर का खून पतला हो जाता है।
नकसीर विटामिन `के´ कमी से बढ़ती है।
विटामिन `के´ चूना यानि कैल्शियम के संयोग से तीव्रता से क्रियाशील होता है।
खून का न जमना अथवा देर से जमना जाहिर करता है कि शरीर में विटामिन `के´ की अत्यधिक कमी हो चुकी है।
विटामिन `के´ पाचनक्रिया सुधारने के लिए सक्रिय योगदान देता है।
नवजात शिशु के शल्यक्रम में सर्वप्रथम विटामिन `के´ का प्रयोग करना पड़ता है।
नवजात शिशुओं के पीलिया रोग में विटामिन `के´ का प्रयोग करना हितकर होता है।
विटामिन `के´ पीले रंग के कणों में उपलब्ध होता है।
वयस्क रोगियों को रुग्णावस्था (रोग की अवस्था में) में विटामिन `के´ कम से कम 10 मिलीग्राम तथा अधिक से अधिक 300 मिलीग्राम प्रतिदिन की एक या अधिक मात्रा देनी चाहिए।
यदि विटामिन `के´ इंजेक्शन के रूप में उपलब्ध हो तो प्रतिदिन एक एम.एल ही रुग्णावस्था (रोग की अवस्था में) में देना पर्याप्त है। आवश्यकता पड़ने पर यह मात्रा दोहराई भी जा सकती है।
किसी भी प्रकार के अधिक स्राव में विटामिन `के´ नियमपूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। इसके साथ यदि कैल्शियम और विटामिन सी प्रयोग किया जाए तो और भी अच्छा लाभ होता है।
यदि यकृत रोगग्रस्त हो चुका हो और रक्तस्राव (खून बहने) होने लगे तो विटामिन `के´ का प्रयोग करना चाहिए।
प्रसव से पहले विटामिन `के´ का प्रयोग करने से प्रसवकाल में रक्तस्राव कम होता हैं
ऑप्रेशन के पूर्व तथा ऑप्रेशन के बाद रक्तस्राव न होने देने अथवा कम होने के लिए विटामिन `के´ का प्रयोग किया जाता है।
शरीर में गांठे पड़ जाने पर विटामिन `के´ की आवश्यकता पड़ती है।
हाइपोप्रोथोम्बेनेविया रोग में विटामिन `के´ के प्रयोग से आराम मिल जाता है।
हेमाटेमेसिस रोग में विटामिन `के´ का प्रयोग लाभ देता है।
शीतपित्त तथा क्षय (टी.बी.) रोगों में विटामिन `के´ का प्रयोग लाभ प्रदान करता है।
रक्तप्रदर में विटामिन `के´ का प्रयोग करने से लाभ होता है।
खून को जमाने में विटामिन `के´ का प्रयोग सर्वोत्तम प्रभाव रखता है।
प्रोथोम्बिन की कमी विटामिन `के´ की वजह से होती है।
आंतड़ियों के घाव तथा आंतड़ियों की सूजन विटामिन `के´ की कमी से होती है। आंतड़ियों में पित्त का अवशोषण न हो पाने की वजह से भी विटामिन `के´ की शरीर में कमी हो जाती है।



विटामिन `डी` की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग-
मज्जा तंतुओं की कमजोरी।
क्षय रोग।
सर्दी जुकाम बार-बार होना।
शारीरिक कमजोरी।
खून की कमी।
विटामिन `डी` युक्त खाद्यों की तालिका-

निम्नलिखित खाद्य-पदार्थो में विटामिन `डी´ पाया जाता है। जिन रोगियों के शरीर में विटामिन `डी´ की कमी होती है उनको औषधियों से चिकित्सा करने के साथ-साथ इन खाद्यों का प्रयोग भी करना चाहिए। विटामिन `डी´ प्राय: उन सभी खाद्यों में होता है जिनमें विटामिन `ए´ पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहता है।

ताजी साग-सब्जी।
पत्तागोभी।
पालक का साग।
सरसों का साग।
हरा पुदीना।
हरा धनिया।
गाजर।
चुकन्दर।
शलजम।
टमाटर।
नारंगी।
नींबू।
मालटा।
मूली।
मूली के पत्ते।
काड लिवर ऑयल।
हाली बुटलिवर ऑयल सलाद।
सलाद।
चोकर सहित गेंहूं की रोटी।
सूर्य का प्रकाश।
नारियल।
मक्खन।
घी।
दूध।
केला।
पपीता।
शाकाहारी भोजन।
मछली का तेल।
शार्क लीवर ऑयल।
अण्डे की जर्दी।
बकरे की अण्डग्रंथियां।
विटामिन `डी´ से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें-

विटामिन `डी´ का आविष्कार विड्स ने 1932 में किया था।
विटामिन `ए´ की भांति विटामिन `डी´ भी तेल और वसा में घुल जाता है पर पानी में नहीं घुलता।
जिन पदार्थो में विटामिन `ए´ रहता है विशेषकर उन्हीं में विटामिन `डी´ भी विद्यमान रहता है।
मछली के तेल में विटामिन `डी´ अधिक पाया जाता है।
विटामिन `डी´ की कमी हो जाने पर आंतें कैल्शियम तथा फास्फोरस को चूसकर रक्त में शामिल नहीं कर पाती हैं।
सूर्य के प्रकाश में विटामिन `डी´ रहता है। कुछ चिकित्सक घावों, फोड़ों तथा रसौलियों की चिकित्सा सूर्य के प्रकाश से करते हैं।
प्रातःकाल सूर्य के प्रकाश में लेटकर सरसों के तेल की मालिश पूरे शरीर पर की जाए तो शरीर को विटामिन `डी´ पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है।
सौर ऊर्जा से बने भोजन में पर्याप्त मात्रा में विटामिन `डी´ उपलब्ध होता है।
भोजन को थोड़ी देर तक सूर्य के प्रकाश में रख दिया जाये तो उसमें विटामिन `डी´ पर्याप्त मात्रा में आ जाता है।
चर्म रोगों की चिकित्सा के लिए विटामिन `डी´ अति उपयोगी है। इसलिए कई चर्म रोग सूर्य का प्रकाश दिखाने से ठीक हो जाते हैं। विटामिन डी का सूर्य से उतना ही सम्बंध है जितना शरीर का आत्मा से।
विटामिन `डी´ मजबूत चमकीले दांतों के लिए अति आवश्यक है।
विटामिन `डी´ हडि्डयों को मजबूत बनाता है।
विटामिन `डी´ की कमी से हडि्डयां मुलायम हो जाती हैं।
विटामिन `डी´ कमी से त्वचा खुश्क हो जाती है।
जो लोग अंधेरे स्थानों में निवास करते हैं वे विटामिन `डी´ कमी के शिकार हो जाते हैं।
विटामिन `डी´ की कमी से कूबड़ निकल आता है।
विटामिन `डी´ की कमी से पेडू और पीठ की हडि्डयां मुड़ जाती हैं या मुलायम हो जाती है।
ठण्डे मुल्कों के लोग विटामिन `डी´ की कमी के शिकार रहते हैं।
प्राचीनकाल में लोग खुले वातावरण में रहते थे इसलिए वे बहुत कम रोगों के शिकार होते थे।
श्वास रोगों को दूर करने के लिए विटामिन `डी´ बहुत असरकारक साबित होता है।
गर्भावस्था में विटामिन `डी´ की अत्यधिक आवश्यकता पड़ती है। यदि गर्भवती स्त्री को विटामिन `डी´ की कमी हो जाये तो पैदा होने वाले बच्चे के दांत कमजोर निकलते हैं और जल्दी ही उनमें कीड़ा लग जाता है।
विटामिन `डी´ के कारण दांतों में कीड़ा नहीं लगता।
शरीर में विटामिन `डी´ की कमी से हडि्डयों में सूजन आ जाती है।
गर्म देश होने के बाद भी भारत के लोगों में सामान्यत: कमजोर अस्थियों का रोग पाया जाता है।
केवल अनाज पर निर्भर रहने वाले लोग अक्सर अस्थिमृदुलता (हडि्डयों का कमजोर होना) के शिकार हो जाते हैं।
बच्चे की खोपड़ी की हडि्डयां तीन मास के बाद भी नर्म रहे तो समझना चाहिए कि विटामिन `डी´ की अत्यधिक कमी हो रही है।
विटामिन `डी´ की प्रचुर मात्रा शरीर में रहने से चेहरा भरा-भरा, चमक लिए रहता है।
पर्दे में रहने वाली अधिकांश स्त्रियां विटामिन `डी´ की कमी की शिकार रहती हैं।
जिन रोगियों को विटामिन `डी´ की कमी से अस्थिमृदुलता तथा अस्थि शोथ रहता है वे अक्सर धनुवार्त के शिकार भी हो जाते हैं।
भारत में विटामिन `डी´ की कमी को दूर करने के लिए बच्चे को बचपन से ही मछली का तेल पिलाना हितकारी होता है।
बच्चों, गर्भावस्था और दूध पिलाने की अवस्था में विटामिन `डी´ का सेवन बहुत जरूरी होता है।
व्यक्ति को बचपन के बाद जवानी और बुढ़ापे में भी मछली का तेल नियमित रूप से पिलाते रहना चाहिए। इससे शरीर में विटामिन `डी´ की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है।
बुढ़ापे में विटामिन `डी´ की कमी हो जाने पर जोड़ों का दर्द प्रारंभ हो जाता है।
विटामिन `डी´ की कमी से हल्की सी दुर्घटना हो जाने पर भी हडि्डयां टूट जाती हैं।
विटामिन `डी´ की कमी से बच्चों की खोपड़ी बहुत बड़ी तथा चौकोर सी हो जाती है।
विटामिन `डी´ की कमी से बच्चों के पुट्ठे कमजोर हो जाते हैं।
विटामिन `डी´ की कमी से बच्चों का चेहरा पीला, निस्तेज, कान्तिहीन दृष्टिगोचर होने लगता है।
विटामिन `डी´ की कमी के कारण बच्चा बिना कारण रोता रहता है।
विटामिन `डी´ की कमी से बच्चे का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा उसको कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
यदि वयस्कों के शरीर में विटामिन `डी´ की कमी हो जाये तो प्रारंभ में उनको कमर और कुल्हों की वेदना सताती है।
यदि वयस्कों को विटामिन-डी की अत्यधिक कमी हो जाये तो उनके पेडू और कूल्हे की हडि्डयां मुड़कर कुरूप हो जाती हैं।
शरीर में विटामिन `डी´ की कमी से सीढ़ियां चढ़ने पर रोगी को कष्ट होता है।
शीतपित्त रोग के पीछे शरीर में विटामिन `डी´ की कमी होती है अत: इस रोग की औषधियों के साथ विटामिन `डी´ का प्रयोग भी लाभ प्रदान करता है।
विटामिन `डी´ की कमी को दूर करने के लिए कच्चा अण्डा प्रयोग करना हितकर होता है।
सर्दियों तथा बरसात के मौसम में बच्चों, बूढ़ों तथा जवानों को समान रूप से विटामिन `डी´ की अधिक आवश्यकता रहती है।
विटामिन `डी´ की अधिकता से दिमाग की नसें शक्तिशाली और लचीली हो जाती हैं।
विटामिन `डी´ सब्जियों में नहीं पाया जाता है।
अण्डा, मक्खन, दूध, कलेजी में विटामिन `डी´ ज्यादा मात्रा में रहता है।
ग्रामीण लोगों को सूर्य की किरणों से पर्याप्त विटामिन `डी´ मिल जाता है।
ग्रामीण लोगों की अपेक्षा शहरी लोग अधिक विटामिन `डी´ की कमी के शिकार होते हैं।
पुरुषों को प्रतिदिन 400 से 600 यूनिट विटामिन `डी´ की आवश्यकता होती है। दूध पीते बच्चों को भी इतनी ही आवश्यकता होती है।
अस्थिशोथ (रिकेट्स) तथा निर्बलता में 4 से 20 हजार अंतर्राष्ट्रीय यूनिट विटामिन `डी´ की आवश्यकता होती है।
कैल्शियमयुक्त खाद्य (प्रति 100 ग्राम)

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